पेजव्यूज़:
जीएसटी को समझना
गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स यानी जीएसटी, भारत के टैक्स इतिहास का सबसे बड़ा सुधार है। इसे 1 जुलाई 2017 को शुरू किया गया था, ताकि पहले के उलझे हुए अप्रत्यक्ष करों (Indirect Taxes) की जगह एक साफ सिस्टम आ सके। जीएसटी से पहले बहुत सारे टैक्स होते थे जैसे एक्साइज ड्यूटी, सर्विस टैक्स, वैट, ऑक्ट्रोई और एंट्री टैक्स। अलग-अलग अधिकारी अलग-अलग समय पर इन्हें वसूलते थे और कंपनियों को नियमों का पालन करने में काफी मुश्किल होती थी।
समझने के लिए सोचो कि एक शर्ट का सफर कैसा था। अगर तमिलनाडु की फैक्ट्री में शर्ट बनी, तो फैक्ट्री गेट से बाहर निकलते ही एक्साइज ड्यूटी सेंट्रल गवर्नमेंट वसूल लेती। जब वही शर्ट तमिलनाडु में बिकी, तो स्टेट गवर्नमेंट वैट लगा देती। यह वैट एक्साइज ड्यूटी पर भी जुड़ता, यानी “टैक्स पर टैक्स।” अगर वही शर्ट तमिलनाडु से कर्नाटक गई, तो तमिलनाडु सेंट्रल सेल्स टैक्स (CST) लेता, कर्नाटक बॉर्डर पर एंट्री टैक्स लगता और फिर नगर सीमा पर ऑक्ट्रोई लग सकता था। आखिर में कर्नाटक उपभोक्ता से फिर से वैट लेता। हर राज्य के अपने नियम और दरें थीं, जिससे कंपनियों और ग्राहकों दोनों के लिए सिरदर्द था।
जीएसटी का मकसद इसे ठीक करना था — “वन नेशन, वन टैक्स।” अब अलग-अलग टैक्स हटाकर एक ही सिस्टम बना दिया गया। आज अगर आप अपने राज्य में कुछ खरीदते हो, तो टैक्स दो हिस्सों में बंटता है: सीजीएसटी (CGST) सेंटर को और एसजीएसटी (SGST) राज्य को जाता है। अगर सामान एक राज्य से दूसरे में जाता है, तो आईजीएसटी (IGST) लगता है, जिसे सेंटर वसूलकर राज्यों में बांटता है।
जीएसटी के फायदे
जीएसटी का सबसे बड़ा फायदा है कि अब “टैक्स पर टैक्स” वाला असर खत्म हो गया। हर स्तर पर सिर्फ “वैल्यू ऐड” पर टैक्स लगता है, जिससे आखिर में दाम कम हो जाते हैं। साथ ही राज्यों में कीमतें लगभग एक जैसी हो जाती हैं, जिससे एक कॉमन नेशनल मार्केट बनता है।
एक और फायदा है कि जीएसटी ज्यादा लोगों और कंपनियों को औपचारिक अर्थव्यवस्था (Formal Economy) में लाता है। एक तय सीमा से ऊपर टर्नओवर होने पर जीएसटी में रजिस्ट्रेशन जरूरी है। इसका फायदा भी है: रजिस्टर्ड कंपनियां इनपुट टैक्स क्रेडिट (ITC) ले सकती हैं। आसान भाषा में — मान लो एक दर्जी मिल से कपड़ा खरीदकर जीएसटी भरता है। बाद में जब वह शर्ट बेचता है, तो ग्राहकों से जीएसटी लेता है। लेकिन उसे उतना टैक्स फिर से नहीं देना पड़ता — वह कपड़े पर दिया जीएसटी घटा सकता है। यानी टैक्स सिर्फ उसकी “सिलाई की वैल्यू” पर लगेगा। मगर यह तभी संभव है जब मिल भी जीएसटी में रजिस्टर्ड हो। इस तरह एक कंपनी दूसरी को सिस्टम में आने के लिए प्रेरित करती है।
जीएसटी की डिजिटल प्रकृति ने “कैश में ही सौदा” वाली आदत कम की है। ग्राहक अक्सर सही इनवॉइस मांगते हैं ताकि उन्हें इनपुट क्रेडिट मिले। इससे व्यापारी बिक्री छिपा नहीं पाते।
जीएसटी की दरें और छूट पर फैसले जीएसटी काउंसिल करती है, जिसमें यूनियन फाइनेंस मिनिस्टर और सभी राज्यों के वित्त मंत्री शामिल होते हैं। वे समय-समय पर मिलकर समीक्षा और बदलाव करते हैं।
खबर: जीएसटी स्लैब आसान करना
अभी जीएसटी में चार स्लैब हैं: 5%, 12%, 18% और 28%। सरकार ने इन्हें घटाकर सिर्फ दो स्लैब: 5% और 18% करने का ऐलान किया है। “सिन गुड्स” जैसे तंबाकू और लग्ज़री कारों पर ऊंचा टैक्स वैसे ही रहेगा।
क्यों आसान बनाना जरूरी है? अभी चार स्लैब में अक्सर झगड़े हो जाते हैं। जैसे कोई चीज़ 12% मानी जाए या 18% — इस पर व्यापारी और टैक्स अधिकारी में बहस हो सकती है। दो स्लैब से यह कन्फ्यूजन कम होगा और खर्चा भी घटेगा।
ग्राहकों के लिए इसका मतलब है कि कई सामान जिन पर पहले 12% या 28% लगता था, अब सस्ते होंगे। रोज़मर्रा के सामान जैसे खाना और घरेलू चीजें 5% में आ सकती हैं, जबकि सीमेंट और कार जैसे बड़े सामान 18% पर आ सकते हैं। इससे मिडल क्लास को अपने महीने के बजट में राहत मिलेगी।
टेक्सटाइल, ऑटो पार्ट्स, सीमेंट और एफएमसीजी जैसे उद्योग भी फायदा पाएंगे। कम जीएसटी से भारतीय प्रोडक्ट्स निर्यात में और प्रतिस्पर्धी बनेंगे। अर्थशास्त्री कहते हैं कि यह बदलाव भारत को ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे देशों की ओर ले जाता है, जहां ज्यादातर सरल जीएसटी सिस्टम है जिनमें एक या दो ही स्लैब होते हैं (आमतौर पर 5% से 15% तक)।
निष्कर्ष
जीएसटी हमेशा एकीकृत सुधार के तौर पर सोचा गया था। अब चार स्लैब से दो स्लैब पर आने के फैसले से सरकार चाहती है कि यह सिस्टम और आसान और न्यायपूर्ण बने।
समय भी खास है। यह ऐलान अमेरिका के टैरिफ विवाद के बीच आया है और उस संदर्भ में, जीएसटी का मतलब हो सकता है ग्रेट सेंस ऑफ टाइमिंग। यह “दीवाली गिफ्ट” जैसा लगता है, जो ग्राहकों का भरोसा बढ़ा सकता है और अर्थव्यवस्था को नई ताकत दे सकता है।